आज एक और सीजफायर टूटा, और इसके साथ टूट गई वह उम्मीद, जो हर बार बॉर्डर पर बंदूकें खामोश देखकर दिल में पलती है।
शनिवार 10 मई को भारत और पाकिस्तान ने सीजफायर की घोषणा की, लेकिन कुछ ही घंटों बाद पाकिस्तान ने उसी सीजफायर पर गोलियां दाग दीं—जैसे शांति सिर्फ एक औपचारिकता हो और बारूद एक परंपरा।

गोली की नहीं, गोला बरसेगा: जब सीजफायर सिर्फ एक शब्द भर रह गया
गोली की नहीं, गोला बरसेगा: जब सीजफायर सिर्फ एक शब्द भर रह गया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुरंत उच्च स्तरीय बैठक बुलाई। ANI के मुताबिक उन्होंने कहा, “अगर उधर से गोली चलेगी, तो इधर से गोला!”
शब्द तेज़ हैं, मगर सवाल यह है कि समाधान क्या है?

अब पाकिस्तान से बात केवल DGMOs के ज़रिए होगी—न कोई कूटनीति, न कोई शांति वार्ता, और न ही कोई ट्रैक-2 डिनर मीटिंग।
सरकार कह रही है, अब जो बचा है बात करने को, वो सिर्फ PoK की वापसी है।
बाकी सब ‘क्लियर’ है।

भारत ने 7 मई को आतंकी ठिकानों पर स्ट्राइक की थी, और उसके बाद से स्टैंड बिल्कुल साफ है—शांति की उम्मीद सिर्फ तब तक, जब तक उधर से खामोशी रहे।
लेकिन क्या खामोशी सिर्फ उधर की ज़िम्मेदारी है?

सवाल ये भी है:
क्या शांति की नीति अब सिर्फ “गोली के बदले गोला” बन गई है?
क्या युद्ध के विकल्प को हम अब उत्सव की तरह देखने लगे हैं?

सिंधु जल संधि—जो कभी दो देशों के बीच पानी की साझेदारी का प्रतीक थी—अब स्थगित है।
पानी भी अब एक रणनीतिक हथियार है, जैसे दोस्ती नहीं रही, सिर्फ मोर्चा बचा है।

सरकार कह रही है—अब हर मोर्चे पर भारत की नीति एक है:
“शांति तब तक, जब तक उधर से शांति रहे।”
ये बात सुनने में ठीक लगती है।
लेकिन क्या हम जानना चाहते हैं कि एक गोली के बदले सौ गोले कौन भुगतेगा?
सरहद पर तैनात वो जवान, जिनकी छुट्टियाँ रद्द हो चुकी हैं,
या वो किसान, जो रात को गोलियों की आवाज़ सुनकर जागते हैं?

सरकारें बदलती हैं, बयान बदलते हैं,
लेकिन LOC पर मरने वाला जवान नहीं बदलता।
उसकी विधवा की पेंशन वही रहती है,
उसके बच्चे के लिए स्कूल की फीस का झगड़ा वही रहता है।

कभी ‘बुलेट ट्रेन’ की बात होती थी,
अब ‘गोला-बारूद’ की बात हो रही है।
हम विकास की ट्रेन पर सवार थे, लेकिन अब क्या हम युद्ध के ट्रैक पर उतर रहे हैं?