रेल की एक घोषणा फिर से आई है। वो भी बस्तर के नाम। रावघाट से जगदलपुर तक 140 किलोमीटर लंबी रेल लाइन को केंद्र सरकार ने मंजूरी दे दी है। 3513 करोड़ की लागत। आँकड़ा बड़ा है, सपना भी बड़ा है। लेकिन ज़रा ठहरिए, इस सपने की असलियत क्या है?

मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव का आभार जता रहे हैं। वे कहते हैं, यह परियोजना बस्तर की तस्वीर बदल देगी। सवाल है—क्या बस्तर को तस्वीर बदलने के लिए सिर्फ रेल लाइन चाहिए, या फिर सरकार की सोच की दिशा भी बदलनी चाहिए?

बस्तर की पटरियों पर दौड़ेगा विकास, या फिर एक और चुनावी आश्वासन
बस्तर की पटरियों पर दौड़ेगा विकास, या फिर एक और चुनावी आश्वासन

कोंडागांव, नारायणपुर और कांकेर जैसे जिलों को पहली बार रेल मानचित्र पर जगह मिलेगी। बहुत अच्छा। लेकिन क्या इन जिलों के लोगों के जीवन में यह रेल लाइन कुछ ठोस बदलाव भी लाएगी, या केवल विकास का एक और स्लोगन बनकर रह जाएगी?

बातें हैं कि यह रेल परियोजना नक्सलवाद को खत्म करेगी। लेकिन क्या सिर्फ पटरियाँ बिछा देने से दशकों पुरानी समस्या हल हो जाएगी? अगर नक्सलवाद सिर्फ विकास की कमी से उपजा है, तो फिर उन जगहों पर क्यों पनपता है जहाँ स्कूल हैं, अस्पताल हैं, पर लोकतंत्र की पहुँच नहीं?

प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के दौरे हो रहे हैं। ‘बस्तर पण्डुम’ मनाया जा रहा है। घोषणाएँ हो रही हैं। लेकिन इन घोषणाओं के बीच क्या किसी ने यह पूछा कि आदिवासी क्या चाहते हैं? क्या वे सिर्फ रेल लाइन चाहते हैं, या अपने अधिकारों की गारंटी?

बस्तर की ज़मीन पर अब एक नई पटरियाँ बिछेंगी। कहा जा रहा है कि यह जीवनरेखा बनेगी। लेकिन किसी ने यह नहीं बताया कि इन पटरियों पर सबसे पहले कौन दौड़ेगा—मालगाड़ियाँ, जो खनिज ले जाएँगी? या फिर वे ट्रेनें, जिनमें बस्तर का युवा नौकरी की तलाश में शहरों की ओर पलायन करेगा?

यह परियोजना एक संदेश भी देती है—कि अब विकास सिर्फ दिल्ली या रायपुर के पॉश इलाकों तक सीमित नहीं रहेगा। लेकिन क्या वास्तव में यह विकास बस्तर के आखिरी गाँव तक पहुँचेगा, या फिर बस्तर फिर से एक नक्सलमुक्त भारत के पोस्टर का हिस्सा बनकर रह जाएगा?

भूमि अधिग्रहण हो रहा है, काम जल्द शुरू होने की बात कही जा रही है। लेकिन जिनकी ज़मीन ली जा रही है, उनसे किसी ने यह पूछा क्या कि उनके लिए क्या विकल्प होंगे?

प्रधानमंत्री कहते हैं मार्च 2026 तक नक्सलवाद का समूल नाश होगा। मैं पूछता हूँ—क्या बस्तर का असली सपना नक्सलवाद से मुक्ति है, या अपनी पहचान और संस्कृति को खोए बिना विकास पाना?

बस्तर की पटरियों पर अब ट्रेन दौड़ेगी।
पर यह ट्रेन किस दिशा में जाएगी—विकास की ओर या विस्थापन की ओर?
क्या यह रेल लोगों को जोड़ने का माध्यम बनेगी, या फिर उन्हें और दूर कर देगी उस सत्ता से, जो हर बार चुनाव से पहले विकास के सपने दिखाती है?