सरगुजा के एक सन्नाटे भरे कोने में जब प्रदीप श्रीवास्तव की पोस्टिंग हुई, तो न कोई स्वागत था, न ही शिकायत। सिर्फ जंगल, खामोशी और कुछ टूटे-फूटे परिवार… कोरवा जनजाति के लोग।
ना बिजली, ना पानी, ना उम्मीद।
और ऊपर से आदत ऐसी कि कंद-मूल, शिकार और जंगल ही ज़िंदगी थी।
लेकिन वहीं से शुरू हुई एक शिक्षक की ‘जिद’—एक ऐसी जिद जिसने सिर्फ अक्षर नहीं, पूरी संस्कृति को जगाया।
“पहले उनकी भाषा सीखी, फिर दिल जीत लिया”
श्रीवास्तव जी ने किताब पहले नहीं खोली, दिल खोला।
उनकी बोली सीखी, जंगलों में साथ चला,
तब जाकर वो समझा सके कि गांव भी एक घर हो सकता है।
फिर राशन कार्ड बना, फिर सरकारी योजना से घर आए, फिर खेती आई…
और अब?
जहां पहले धुएं से सुलगते थे दिन, वहां सोलर पैनलों से चमकते हैं घर।
जहां प्यास बुझाने नदी जाना पड़ता था, वहां नल से बहता है भरोसा।
स्कूल सिर्फ इमारत नहीं, एक आंदोलन बना
बच्चे अब स्कूल आते हैं।
पढ़ाई अब जंगल से भागने का रास्ता नहीं, जीने का जरिया है।
हर बच्चा जब क, ख, ग कहता है, तो लगता है जैसे कोरवा संस्कृति अपने होने का ऐलान कर रही है।
सिर्फ मास्टर नहीं, मसीहा है
17 साल… सोचिए, कोई नौकरीपेशा आदमी 17 साल में चार तबादले, दो प्रमोशन और एक ‘सरकारी थकान’ ले लेता है।
लेकिन श्रीवास्तव ने 17 साल में एक पूरी बस्ती को बदल डाला।
कोरवा अब सिर्फ फॉर्म का एक कॉलम नहीं,
आधुनिक भारत के एक हिस्से की पहचान है।
सवाल अब सरकार से है
जब एक शिक्षक अकेले 30 परिवारों की तक़दीर बदल सकता है,
तो पूरी व्यवस्था को क्या रोक रहा है?
क्या हर गांव में एक प्रदीप श्रीवास्तव नहीं हो सकता?
ये रिपोर्ट सिर्फ बदलाव की कहानी नहीं है,
ये बाकी सिस्टम से एक सवाल है—अगर मास्टर कर सकता है, तो आप क्यों नहीं?