रायपुर के अभनपुर में भारतमाला प्रोजेक्ट की चमक के पीछे दो मजदूरों की ज़िंदगी खाक हो गई। उत्तर प्रदेश से आए ये मजदूर—शायद घर से निकले थे दो वक़्त की रोटी और कुछ सपनों की तलाश में—but लौटेंगे अब लकड़ी की चुप्प सी ताबूत में, अगर कुछ बचा हो तो।
खाना बन रहा था, सिलेंडर फटा और आग ने उन्हें जिंदा निगल लिया।
ये हादसा नहीं, व्यवस्था की बेरुखी का जलता हुआ दस्तावेज़ है। कंटेनर में रखे थे उनके दिन-रात, खाना, नींद और थकान। वही कंटेनर बना उनका ताबूत। आग इतनी भयानक थी कि सिर्फ शरीर नहीं जले, हड्डियां भी गल गईं।
भारतमाला… एक ऐसा नाम जिसे सरकार विकास की पहचान बताती है। लेकिन इस विकास की आड़ में अगर दो मज़दूर जलकर राख हो जाएं, तो क्या उस सड़क पर पहली गाड़ी गुजरते वक्त कोई रुकेगा, सोचने के लिए?
मज़दूरों की मौत का कोई कैमरा नहीं होता, कोई गार्ड ऑफ ऑनर नहीं होता। सिर्फ थाने की रिपोर्ट होती है, और ठेकेदार की खामोशी।
अब सवाल ये नहीं है कि सिलेंडर फटा या खाना पक रहा था…
सवाल ये है कि क्या इन मज़दूरों के पास इतना भी इंतज़ाम नहीं था कि खाना पकाते वक़्त जान बचा सकें?
अगर भारतमाला प्रोजेक्ट के करोड़ों के बजट में सुरक्षा के दो चूल्हे, दो फायर-एक्सटिंगुशर नहीं आए,
तो अगली बार कोई और मजदूर उस चूल्हे के पास बैठे, डर के साथ बैठेगा।
रिपोर्टिंग जारी है। सवाल अभी बाक़ी हैं।