इस देश में जब किसी शहर को मिसाइल निर्माण के लिए चुना जाता है, तो वहां विकास का एक नया अर्थ उगता है—जहाँ खेत नहीं, अब फायर एंड फॉरगेट उगेंगे। और इस बार ये शहर है—लखनऊ।

लखनऊ, जहाँ कभी तहज़ीब के किस्से सुनाए जाते थे, अब वहाँ सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ब्रह्मोस नेक्स्ट जनरेशन बनाई जाएगी।
तीन साल लगे, 300 करोड़ रुपये लगे।
किसी ने पूछा कि स्कूलों की हालत सुधारने में कितना खर्च लगता है?
नहीं, वो सवाल देशभक्ति के दायरे में नहीं आता।

ब्रह्मोस नेक्स्ट जनरेशन—जिसका वजन अब 2900 किलो से घटकर 1260 किलो हो जाएगा
और रेंज? 300 किलोमीटर
स्पीड? Mach 3—यानि आवाज़ से तीन गुना तेज़।
मतलब दुश्मन सोच भी नहीं पाएगा, और निशाना लग जाएगा।
कहा जा रहा है, यह मिसाइल दुश्मन के रडार को चकमा दे सकती है।
काश देश के बेरोजगार युवाओं के दर्द को भी कोई सिस्टम चकमा दे पाता।

अब आप सोचिए, लखनऊ में बनने वाली ये मिसाइल सुखोई फाइटर जेट में एक साथ पाँच-पाँच लोड होकर उड़ सकती है।
मतलब अब युद्ध सिर्फ रणनीति नहीं, स्पीड और पैकिंग का भी मामला है।

डॉ. सुधीर मिश्रा, डीआरडीओ के एडवाइज़र कहते हैं—हर साल 100 से 150 मिसाइलें बनेंगी
विकास की रफ़्तार देखिए—जहाँ बेरोजगारी की रेट स्थिर है, वहाँ मिसाइल उत्पादन की संख्या बढ़ रही है।

तिरुवनंतपुरम, नागपुर, हैदराबाद और पिलानी में पहले से ब्रह्मोस बन रही थी। अब लखनऊ जुड़ गया।
लेकिन खास बात ये है कि नेक्स्ट जनरेशन ब्रह्मोस सिर्फ लखनऊ में बनेगी।

सवाल है—क्या यह वही लखनऊ है जहाँ अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से जानें जाती थीं?
क्या यह वही लखनऊ है जहाँ हर साल बच्चे डेंगू और वायरल से मरते हैं, लेकिन डेटा चुप रहता है?

ब्रह्मोस मिसाइल तेज़ है। सटीक है। अगली पीढ़ी की तकनीक है।
पर क्या हमारे बच्चों को वो स्कूल मिल पा रहे हैं जो उनके भविष्य की ‘रेंज’ बढ़ा सकें?

‘ऑपरेशन सिंदूर’ में भारत ने आतंकियों के 9 ठिकानों पर वार किया। दुनिया ने देखा भारत की ताकत।
पर ये ताकत किसकी है? देश की या सत्ता की?
क्या ये मिसाइल उस झुग्गी में रहने वाले बच्चे को भी ताकत देती है, जो हर दिन धुएं से बनी रोटी खाता है?