आज हम बात करेंगे उस शहर की, जो कहता है कि वह विकास कर रहा है। जहां इमारतें ऊँची हो रही हैं, लेकिन इंसान की राहें छोटी पड़ती जा रही हैं। बात हो रही है बिलासपुर की—एक शहर, जहाँ यातायात को सुचारू बनाने के नाम पर जनता की जेब से समय और सहूलियत की कीमत वसूली जा रही है।

एक किलोमीटर की दूरी, सिस्टम के नाम – बिलासपुर की सड़कों पर प्रशासन का ट्रैफिक प्रयोग
एक किलोमीटर की दूरी, सिस्टम के नाम – बिलासपुर की सड़कों पर प्रशासन का ट्रैफिक प्रयोग

छत्तीसगढ़ भवन, इंदिरा सेतु और राम सेतु—ये नाम अब सिर्फ पुलों या इमारतों के नहीं रह गए हैं। ये प्रतीक बन गए हैं उस ‘जाम’ के, जो न सिर्फ सड़क पर लगता है, बल्कि सिस्टम की सोच में भी बैठ गया है।

एसएसपी साहब ने आदेश दिया। आदेश क्या था? ऑटो स्टैंड और बस स्टॉप को छत्तीसगढ़ भवन के गेट नंबर 2 से हटाना था। कर दिया गया। इंदिरा सेतु पर तीन जगह स्टॉपर लगा दिए गए—ताकि ट्रैफिक डायवर्ट हो सके। कांग्रेस भवन से कुदुदंड और छत्तीसगढ़ भवन से कोन्हेर उद्यान जाने वाली सड़कें बंद कर दी गईं।

अब आप कहेंगे, भई इससे फायदा क्या हुआ? तो सुनिए—अब आपको एक किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ेगा। क्योंकि सीधा रास्ता अब प्रशासन की सीधी सोच से टकरा गया है। पहले नेहरू चौक से इंदिरा सेतु के बीच से जो दो रास्ते खुलते थे, वे अब बंद हैं।

नतीजा?
एक किलोमीटर लंबी मजबूरी।

और अगर आपने ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन किया, तो एसएसपी रजनेश सिंह और एएसपी रामगोपाल करियारे की टीम आपका चालान करने को तैयार बैठी है।

सड़क पर लगने वाली छोटी-छोटी दुकानें—गुपचुप वाले, चाट वाले, फल वाले—जिनकी रोज़ी-रोटी इसी ट्रैफिक में बसी थी, उन्हें हटा दिया गया।

सवाल यह नहीं है कि व्यवस्था ठीक की जा रही है या नहीं। सवाल यह है कि व्यवस्था किसके लिए बनाई जा रही है?
क्या ट्रैफिक को सुचारू करना वाजिब है? बिल्कुल। लेकिन अगर उसका मतलब जनता को और घुमाना, और थकाना, और परेशान करना है—तो यह सुधार कम, शासन का इन्फ्रास्ट्रक्चर एक्सपेरिमेंट ज़्यादा लगता है।

क्योंकि शहर में जाम केवल गाड़ियों का नहीं होता—शहर में जाम योजनाओं का भी होता है।

और अंत में, सवाल वही पुराना—क्या सड़कें जनता के लिए बनती हैं, या जनता को सड़क के हवाले कर देने के लिए?